जिसने अपनी जनजाति की परम्परा का निर्वहन करते हुऐ गोली खाकर किया खुद को अमर …
बूंदी.krishnaKantRathore/ @www.rubarunews.com- भील जनजाति राजस्थान की प्रमुख जनजाति हैं। राजपूतों के उदय से पूर्व दक्षिणी राजस्थान और हाडौती क्षेत्र मे भील जनजाति के अनेक छोटे-छोटे राज्य रहे। वनवासी जातियों जैसे निषाद्, शबर, डामोर, गरासियां आदि के लिए प्राचीन साहित्य में भील संज्ञा रूप में प्रयुक्त करते हैं।
भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ शब्द “बील” जिसका शाब्दिक अर्थ “धनुष” है, से हुई है। धनुष जो भीलों का प्रमुख शस्त्र हैं, जिससे यह भील कहलाये। भील जनजाति की गणना प्राचीन राजवंशों में विहिल नाम से होती हैं, जिनका शासन पहाड़ी क्षेत्रों मे था। यह जनजाति अभी भी पहाड़ी और वन क्षेत्रों में रहती हैं।
यह जनजाति वीर ही नहीं स्वामीभक्त भी रही हैं, जिसका प्रमाण मेवाड़ राज्य रहा हैं, मेवाड़ के राज्यचिन्ह में सूर्य के एक ओर भील योद्धा तो दूसरी ओर राजपुरूष अंकित हैं, तो मेवाड़ की राज्य परम्परा में महाराणा का राजतिलक भील योद्धा के अंगूठें के रक्त तिलक से होता आया हैं। मेवाड़ इतिहास मे जितना योगदान राजपूतों का हैं, भील जनजाति का योगदान उससे कमतर नहीं हैं। राणा प्रताप का एक उपनाम “कीका” भील जनजाति की देन है।
इतिवृत में भील जनजाति में बांसिया भील, कुशला भील, जोगरराज, रामा – भाना अपनें छोटे राज्यों मे आधिपत्य रहा, तो कोट्या भील का भी कोटा में लम्बा शासन रहा तो मनोहरथाना क्षेत्र में भील राजा चक्रसेन का। लेकिन इस जनजाति को पहचान मिली, मेवाड़ राजपरिवार के साथ, जिसमें प्रमुख नाम “भीलू राणा पूंजा” का, जिसका महाराणा प्रताप के संघर्ष में अटूट साथ रहा।
जब स्वतन्त्रता की अलख जगाई जा रही थी, तब जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाली यह जनजाति भी इस अलख से अछुती नहीं थी। यहाँ यह कार्य गोविन्द गुरू और मोती लाल तेजावत कर रहे थें, जिन्हें “आदिवासियों का मसीहा” भी कहा जाता हैं। यह राज्यों के शोषण व दमनकारी नीतियों के विरूद्ध छोटे-छोटे आन्दोलन के माध्यम से स्वतन्त्रता के लिए लोगों को जाग्रत कर रहे थें।
राजस्थान में स्वतन्त्रता की लौ किसान आन्दोलन से प्रज्ज्वलित हुई। राजस्थान के किसान आन्दोलनों में बरड़ का किसान आन्दोलन भी प्रमुख रहा हैं। बून्दी राज्य के बरड़ क्षेत्र मे 1922 में राज्य की किसान विरोधी नीतियों से त्रस्त किसानों का आन्दोलन राजस्थान सेवा संघ के पंडित नयनूराम के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ।
बून्दी के बरड़ क्षेत्र में डाबी नामक स्थान पर राज्य की ओर से बातचीत द्वारा किसानों की समस्याओं एवं शिकायतों को दूर करने के लिए बुलाये गये किसान सम्मेलन में सभी प्रयास विफल होने पर पुलिस द्वारा किसानों पर की गई गोलीबारी में झण्डा गीत गाते हुए एक भील युवा “नानक जी भील” शहीद हो गए।
जो प्रयास मेवाड़ और दक्षिण रास्थान में गोविन्द गुरू और मोती लाल तेजावत कर रहे थें, उसी कार्य हेतु बरड़ में नानक भील अपने सामर्थ्य के अनुरूप सक्रिय थे।
किसान आन्दोलन के अग्रणी विजय सिंह पथिक, माणिक्य लाल वर्मा, पं.नयनूराम से प्रेरित इस नानक भील का जन्म 1890 में बरड़ क्षेत्र के धनेश्वर गांव में हुआ था, पिता का नाम भेरू लाल भील था। गोविन्द गुरू और मोती लाल तेजावत को आदर्श मानने वाला साहसी, निर्भिक और जागरूक युवा नानक भील पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ क्षेत्र के हर गॉव ढ़ाणी में झण्ड़ागीतों के माध्यम से लोगों को जागृत कर स्वराज्य का संदेश पहुंचा रहे थे।
13 जून 1922 को डाबी किसान सम्मेलन में पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी में झण्डा गीत गाते हुए इस भील युवा नानक भील के सीने पर तीन गोलियां लगी। जनता को जागृत कर रहा यह युवा नानक भील झण्ड़ागीत गाते हुए शहीद हो गये। ग्रामीण जनता ने इस बलिदानी नानक भील के शव को गांव गांव मे घुमाया और प्रत्येक घर से प्राप्त नारियलों से बनी चिता पर नानक भील का अंतिम संस्कार किया गया। नानक भील की शहादत पर माणिक्य लाल वर्मा नें अर्जी गीत की रचना भी की। हालांकि यह आन्दोलन असफल रहा, परन्तु नानक भील की शहादत बेकार नहीं गई। इस आन्दोलन से यहाँ के किसानों को कुछ रियायतें अवश्य प्राप्त हुई, भ्रष्ट अधिकारियों को दण्डित किया गया तथा राज्य के प्रशासन में सुधारों का सूत्रपात हुआ।
डाबी के मुख्य चौराहे पर स्थित पार्क में नानक भील की आदमकद प्रतिमा अपना सिर उठाये खड़ी हैं। जहाँ प्रतिवर्ष नानक भील की स्मृति में आयोजित आदिवासी विकास मेले में राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों से अधिकाधिक लोंगो को लाभान्वित किया जा रहा हैं। राजस्थान के किसान आन्दोलन में बरड़ का किसान आंदोलन के आन्दोलन के साथ “नानक भील“ का नाम प्रमुखता से लिया जाता हैं। “नानक भील” बरड़ का वह भील रत्न हैं, जिसने अपनी जनजाति की परम्परा का निर्वहन करते हुऐ अपने हितों की रक्षार्थ शहादत पाई और अपनी जनजाति के वीर योद्धाओं में अपना और अपने क्षेत्र का नाम भी हमेशा के लिए लिखवा दिया। भले ही “नानक भील” ने 1922 में शहादत पाई हो, लेकिन वह आज भी क्षेत्र के किसानों के दिल में जिन्दा हैं।
प्रस्तोता – कृष्ण कान्त राठौर, शिक्षा प्राध्यापक, बून्दी