सकारात्मक रहें तो परंपरावादी होना भी अच्छा है-डॉ. सुनील त्रिपाठी निराला
भिंड l लोक प्रचलित मान्यताओं के अनुसार रूढ़िवादी या परंपरा वादी होना अच्छा नहीं माना जाता है किंतु अगर हम किसी मुद्दे पर सकारात्मक रहें, किसी बात को लोक हितकारी दृष्टिकोण से देखें तो कोई भी परंपरा न तो पूरी तरह अच्छी होती है और न ही पूरी तरह से बुरी होती है। नवीन को श्रेय और प्राचीन को हेय मानना ठीक नहीं है। हमें प्रत्येक वस्तु का गुण-दोष के आधार पर विवेचन करना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
पाप-पुण्य,गुण-दोष मय, विश्व कीन करतार।
संत हंस गुण गण गहें, परिहार वारि विकार।।
वर्तमान कोरोना संकट के दौरान बहुत सारी बातें उभरकर आई हैं कि इस वैश्विक महामारी से कैसे बचा जाए। जो बातें कोरोना से बचाव के लिए आवश्यक मानी गई हैं उन पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि इनमें से बहुत सारी परंपराओं को लोगों द्वारा रूढ़िवाद, संकुचितता आदि के नाम पर त्यागने के आंदोलन खड़े किए।
उदाहरण के तौर पर पहली बात जो मुख्य रूप से बताई जाती है वह है कि बाहर से हम जब भी आए तो जूतों को घर से बाहर उतारें। घर की किसी भी वस्तु को स्पर्श करने से पूर्व साबुन से हाथ धोएं और संभव हो तो वस्त्र भी धोलें। हम देखते हैं कि प्राचीन काल से ही हमारे यहां जूतों को घर से बाहर उतारने की परंपरा रही है। आज फिर बार-बार कहा जा रहा है कि जूते बाहर उतारना ही श्रेष्ठ है।
हाथ धोने की परंपरा, प्रतिदिन स्नान करना भी लोगों को रूढ़िवाद दिखाई देता हैं। एक हमारे बड़े साहित्यकार मित्र हैं वह बड़े गर्व से कहते हैं कि सर्दियों में मैं दो-दो महीने नहीं नहाता हूं। और एक तरह से कहा जाए कि ना नहाने से मैंने बहुत सारा समय बचाकर के साहित्य सृजन में लगाया है। बेशक़ नहाने से पाप-पुण्य का कोई संबंध नहीं है। इसका सीधा सीधा संबंध शारीरिक स्वच्छता से है। वह शारीरिक स्वच्छता ही हम को स्वस्थ रखती है। यह भी एक सनातनी परंपरा है। सुबह सफाई स्नान करने की अथवा जब भी आपको वक्त मिले तो आप स्नान कर लें। तीसरी बात आती है कि हम किसी से जब भी मिलें तो उससे हाथ न मिलाएं बल्कि हाथ जोड़कर उसका अभिवादन करें। यह परंपरा भी लंबे समय से सनातन काल से चली आ रही है।
आज अमरीका जैसी महाशक्ति का राष्ट्रपति भी अपने समकक्ष से हाथ मिलाने की बजाय हाथ जोड़कर अभिवादन कर रहा है। कुछ दकियानूसी विचारकों ने धर्म से जोड़ने की कोशिश की है। एक दूसरे से हाथ मिलाने की अपेक्षा एक दूसरे का हाथ जोड़कर अभिवादन करना ही श्रेष्ठ है।
एक और बार जो जोरशोर से बताई जा रही है कि जब भी हम खांसें या छींकें तो अपने मुंह पर रूमाल रख लें। उस समय हमको लगता था कि यह तो लड़कियों वाला फैशन है जो गुरु जी हम को सिखाने की कोशिश कर रहे हैं। किंतु वर्तमान में दिशानिर्देशों में यह पाया गया है कि हम छींकें या खांसें तो अपने मुंह पर टिशू पेपर अथवा रुमाल अथवा अथवा बाहें लगा लें। यही कहा जा रहा है एक बात और बताई जा रही है कि हम कोई वस्तु खरीदें तो उसको इस्तेमाल करने के पहले तरीके से धोलें। परंपरा चली आ रही है कि खाने की वस्तुओं खासकर अनाज को हमारे घर की महिलाएं बीनती हैं, फतकतीं हैं, धोतीं हैं तत्पश्चात प्रयोग में लाती हैं।
हमको प्राचीन काल से ही से ही एक बात और सिखाई जाती रही है वह यह है कि हमें बाजार के खानपान से बचना चाहिए। किसी के भी यहां भोजन करने से बचना चाहिए। किसी के भी हाथ का भोजन ग्रहण करने से बचना चाहिए। इसको भी सनातनी परंपरा के दायरे में रखकर के कुछ लोगों ने इसको ठीक नहीं माना है किंतु इसे भी कोरोना संकट में एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है कि हम बाजार की वस्तुओं का प्रयोग ना करें। घर में बनाई हुई खाद्य वस्तुओं का ही इस्तेमाल करें। एक और पुरानी मान्यता जो हमारे मस्तिष्क में रखी गई है कि हमें अनावश्यक रूप से किसी के घर नहीं जाना चाहिए। इसको लेकर के कवियों ने भी बहुत सारी रचनाएं की हैं कि पवन के झोंके से बादल छँट जात हैं, नित-नित आए से आदर घट जात हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारी सनातनी परंपराओं को जिन्हें दकियानूसी, संकीर्ण विचारधारा कह के त्याज्य बनाने की कोशिश की गई, उन परम्पराओं को ही इस वैश्विक महामारी कोरोना के संकट में कोरोना से बचने का ब्रह्मास्त्र माना गया है। संक्षेप में कहा जाए तो यदि सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाए तो परंपरा वादी वादी होना भी श्रेयस्कर है।