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जिले में 60 थैलेसीमिया पीड़ित बच्चे, महिने में 2 बार होती है खून की जरूरत

बूंदी.KrishnakantRathore/ @www.rubarunews.com- थैलेसीमिया अनुवांशिक तौर पर बच्चों को माता-पिता से मिलने वाला रक्त रोग है, जिसके कारण शरीर में हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया ठीक से काम नहीं करती है और पीड़ित बच्चे के शरीर में रक्त की कमी होने लगती है। पीड़ित बच्चे के शरीर में रक्त की कमी होने के कारण बार-बार रक्त चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। वर्तमान में बून्दी जिले में थैलेसीमिया पीड़ित लगभग 60 बच्चे हैं, जिनमें 3 माह से लेकर 12 साल के बच्चे हैं। थैलेसीमिया बीमारी के कारण प्रत्येक पीड़ित बच्चे को माह में 2 बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। रक्त की जरूरत के समय परिजन परेशान न हो और बच्चों की जान मुसीबत में न पड़े इसके लिए सामाजिक संस्थाओं को थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों को गोद लेने की आवश्यकता हैं। यदि संस्थाऐं ऐसे बच्चों को गोद ले ले तो आवश्यकता होने पर परिजनों को कोटा या अन्य स्थानों के ब्लड बैंकों के चक्कर लगानो की जरूरत नहीं पड़े। वहीं बच्चों को जब भी रक्त की जरूरत हो संस्था द्वारा उसे रक्त उपलब्ध करवाया जा सकें।
इस तरह थैलेसीमिया से हो सकता है बचाव
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. जी. एस. कुशवाह ने बताया कि खून की जांच करवाकर रोग की पहचान कर सकते हैं। शादी का रिश्ता तय करने से पहले लड़के व लड़की के खून की जांच कराई जा सकती है। नजदीकी रिश्ते में शादी करने से बचना और गर्भ ठहरने के 4 माह के अन्दर भ्रूण की स्वास्थ्य जांच करवा कर भी बीमारी से बच सकते हैं।
3 माह बाद नजर आते हैं थैलेसीमिया के लक्षण
जिला अस्पताल बूंदी के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पंकज शर्मा का कहना हैं कि थैलेसीमिया बीमारी से ग्रसित बच्चों में जन्म के 3 माह बाद ही लक्षण नजर आते हैं, वहीं कुछ बच्चों में 5 -10 साल के मध्य लक्षण दिखाई देते हैं। सामानय लक्षणों में त्वचा, आंख, जीभ व नाखून पीले पड़ने लगते हैं। दांतों को उगने में दिक्कत और बच्चे का विकास रुक जाता है। थैलेसिमिया की गंभीर अवस्था में खून चढ़ाना जरूरी हो जाता है। इन्होंने बताया कि बून्दी में लगभग 60 बच्चें थैलेसीमिया बीमारी से ग्रसित हैं। जिनमें से 45 बच्चें बून्दी जिला अस्पताल में पंजीकृत हैं, वहीं शेष बच्चें कोटा, टोंक, सवाई माधोपुर में भी पंजीकृत हैं।
रक्तदान के लिए किया प्रोत्साहित
जिला अस्पताल सहित सभी ब्लड़ बैंकों में थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों को प्राथमिकता से रक्त उपलब्ध करवाया जाता हैं। फिर भी कई बार ब्लड़ बैंक में ही रक्त की कमी हो तो परिजनों के सामने समस्या आ जाती हैं। ऐसे में स्वैच्दिक रक्तदाता का इंतजार या अन्य ब्लड़ बैंकों से उसकी व्यवस्था के लिए परेशान होना पड़ता हैं। स्वैच्छिक रक्तदाताओं के कम आने के साथ ही रक्तदान शिविर का आयोजन नहीं हो पाने की वजह से ब्लड बैंक में रक्त की कमी को देखते हुए स्वास्थ्य विभाग द्वारा सामाजिक संस्थाओं से संपर्क करके रक्तदान के लिए प्रोत्साहित किया ज कर रक्तदान शिविरों का आयेजन करवाया जाता हैं। वहीं रक्तदान जागरूकता कार्यक्रमों के चलते भी 3-4 दिनों के अंतराल पर युवा वर्ग आगे आकर स्वैच्छिक रक्तदान रक्तदान करने लगा है।
बोन-मैरो मैच हुआ तो हमेशा के लिए मिली बीमारी से मुक्ति
थैलेसीमिया दिवस पर बात करें एक ऐसे बच्चे की जिसकी माता से बोन-मैरो मैच होने के बाद उसे थैलेसीमिया से हमेशा के लिए मुक्ति मिली। नगर परिषद में पार्षद प्रेमप्रकाश एवरग्रीन का पुत्र वंश एवरग्रीन का 2017 में बोन मेरो ट्रांसप्लांट किया गया, जिसके बाद उसे इस बीमारी से हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई। परिजन प्रेमप्रकाश एवरग्रीन ने बताया कि वंश के बोन मेरो ट्रांसप्लांट के लिए जांच करवाई गई, जिसमें उसकी माता के बोनमेरो से मैच होने के बाद आगे की प्रक्रिया शुरू की गई और जयपुर के मणिपाल हॉस्पिटल में बेटे का बोनमेरो ट्रांसप्लांट किया गया। इन्होंने बताया कि लगभग 2 साल की देखरेख के बाद वंश पूरी तरह से स्वस्थ हैं और वर्तमान में बी.ए. सेकंड एयर का छत्र हैं, जो आगे चल कर पारिवारिक व्यवसाय को आगे बढ़ाना चाहता हैं।
बोन-मैरो ट्रांसप्लांट पर प्रति बच्चा 7 लाख रुपए खर्च देती है सरकार
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. जी. एस. कुशवाह ने बताया कि राज्य सरकार बोन मैरो ट्रांसप्लांट पर प्रति बालक 7 लाख रुपए देती है। ये उन परिवारों के लिए है, जिनकी वार्षिक आय 2.50 लाख रुपए या इससे कम है। पीड़ित बच्चे का उसके भाई-बहिन से एचएलए शत प्रतिशत और माता-पिता से 50 फीसदी मैच होने पर ट्रांसप्लांट करीब 85 फीसदी सफल होता है। बोन-मैरो लेने से शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। चार माह बाद ये रिकवर हो जाता है।
ब्लड कंपोनेंट यूनिट चालू हो तो मिले बच्चों को राहत
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. पंकज शर्मा ने बताया कि अभी वर्तमान में पीड़ित बच्चों को ब्लड बैंक से मिलने वाला संपूर्ण ब्लड़ जिसमें आरबीसी, डब्ल्यूबीसी, प्लेटलेट्स और प्लाज्मा भी सम्मिलत होती हैं, चढाया जाता हैं। यदि यहां पर ब्लड कंपानेंट यूनिट की सुविधा चालू हो जाए तो आवश्यकतानुसार पैक्ड ब्लड सैल्स ही चढाया जा सकेगा। जिससे भविष्य में संपूर्ण ब्लड़ चढ़ाए जाने से होने वाले साइड इफेक्ट से बचा जा सकें।
जिला अस्पताल के ब्लड बैंक प्रभारी डॉ. ऋषि कच्छावा ने बताया कि बून्दी ब्लड बैंक में कंपोनेंट यूनिट उपलब्ध हैं, लेकिन लाइसेंस के अभाव में संचालित नहीं हो पा रही हैं। इसके लाइसेंस की प्रक्रिया पूरी की जा चुकी हैं, आशा हैं जल्दी ही यह सुविधा शुरू हो जाएंगी।
क्या है थैलेसीमिया
यह आनुवांशिक बीमारी है जो जन्म से होती है। किसी महिला और पुरुष में थैलेसीमिया वाहक जीन हैं और उन दोनों की शादी होती है तो उनसे थैलेसीमिया पीड़ित बच्चा होने की संभावना होती है। ऐसे बच्चों को 10 से 15 दिन में खून चढ़ाना पड़ता हैं।
बीमारी पता करने के लिए एचपीएलसी ब्लड टेस्ट एक मात्र उपाय
शादी से पहले महिला-पुरुष का एचपीएलसी ब्लड टेस्ट कराना चाहिए। इससे रोग वाहक जीन का पता लगता है। पुरुष-महिला में से किसी एक में यह जीन है तो कोई खतरा नहीं रहता। दोनों में यह जीन होने वाले बच्चे को थैलेसीमिया होने का खतरा रहता है। देश में करीब 10 से 12 फीसदी लोगों में यह जीन पाया जाता है।