RTI और सोशल ऑडिट जनसुनवाई पर 24वें राष्ट्रीय वेबिनार का हुआ आयोजन
दतिया/ रीवा @ruabrunews.com>>>>>>>> मप्र सूचना आयुक्त राहुल सिंह की अध्यक्षता में हुआ RTI और सोशल ऑडिट जनसुनवाई पर 24वें राष्ट्रीय वेबिनार का हुआ आयोजन। विशिष्ट अतिथि के तौर पर पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी, मजदूर किसान शक्ति संगठन के सह संस्थापक निखिल डे, मुम्बई से RTI एक्टिविस्ट भास्कर प्रभु, पूर्व राज्य सूचना आयुक्त आत्मदीप सम्मिलित रहे।*
आरटीआई से जुड़े हुए मामलों पर उपस्थित विशेषज्ञों के द्वारा चर्चा की गई। कार्यक्रम का विषय आरटीआई एवं सोशल ऑडिट जनसुनवाई रहा। कार्यक्रम की अध्यक्षता मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयुक्त राहुल सिंह के द्वारा की गई जबकि विशिष्ट अतिथि के तौर पर पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी, मजदूर किसान शक्ति संगठन एवं नेशनल कैंपेन फॉर पीपल राइट टू इनफार्मेशन एनसीपीआरआई के सह-संस्थापक एवं संयोजक वरिष्ठ आरटीआई एवं सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे, मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयुक्त आत्मदीप एवं माहिती अधिकार मंच मुंबई के संयोजक भास्कर प्रभु रहे।नकार्यक्रम का संयोजन प्रबंधन एवं समन्वयन अधिवक्ता एवं आरटीआई एक्टिविस्ट नित्यानंद मिश्रा, आरटीआई एक्टिविस्ट शिवानंद द्विवेदी, शिवेंद्र मिश्रा, अंबुज पांडे के द्वारा किया गया।
*आरटीआई कानून का उद्देश्य प्रशासन को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना है -सूचना आयुक्त राहुल सिंह*
सोशल ऑडिट और जनसुनवाई विषय पर अपने विचार रखते हुए सूचना आयुक्त राहुल सिंह ने कह की हमें हर स्थान पर यदि अनियमितता पाई जाती है तो सोशल ऑडिट जनसुनवाई की जा सकती है। श्री सिंह ने कहा की पिछली बार पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी ने अपने कार्यकाल में स्कूल के सोशल ऑडिट के विषय में अनुमति प्रदान की थी जिसके बाद अधिकारियों को इस बात का डर लगने लगा था कि उनके ऊपर भी कार्यवाही की जा सकती है और उनकी कमियां जनता के समक्ष और मीडिया के समक्ष सामने आ सकती है। इसलिए सोशल ऑडिट और जनसुनवाई आम जनता का एक ससक्त हथियार है जिसमें प्रशासन जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनता है।
अधिकारियों का यह प्रयास रहता है कि वह अपने कार्यालय में किसी आम आदमी को घुसने न दें लेकिन सोशल ऑडिट और जन सुनवाई करने से उनके अंदर भी यह भय उत्पन्न होता है कि ऑफिस में रखी हुई किसी भी चीज का सोशल ऑडिट किया जा सकता है और निरीक्षण किया जा सकता है। अतः आरटीआई कानून के द्वारा पारदर्शिता बढ़ी है और प्रशासन जनता के प्रति ज्यादा उत्तरदाई हुआ है।
*हमने सूचना के अधिकार को जन-जन तक पहुंचाने आरटीआई गीत बनाया – पारस बंजारा*
इस बीच कार्यक्रम में पहली बार अपनी सहभागिता निभाने पधारे विशिष्ट अतिथि राजस्थान के मजदूर किसान शक्ति संगठन के कार्यकर्ता एवं आरटीआई एक्टिविस्ट पारस बंजारा ने बताया कि आरटीआई कानून जन जन तक किस प्रकार से पहुंचे और किस प्रकार लोग उससे लाभान्वित हों इसके लिए उन्होंने आरटीआई पर एक गीत बना डाला। और गीत के माध्यम से जनता को सूचना के अधिकार कानून और उनके कर्तव्य, अधिकारों के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया।
_*सूचना का अधिकार गीत*_ –
ये है कानून का मेल, इसमे धाराओं का खेल।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।
धारा 6 में लगाओ अर्जी, ले लो सूचना जो मर्जी।
अब तो देनी ही पड़ेगी सूचना तमाम, अब तो देनी ही पड़ेगी सूचना तमाम।
धारा 7 मागे फीस, रुपए 10 की रसीद। अब तो देनी ही पड़ेगी सूचना तमाम। अब तो देनी ही पड़ेगी सूचना तमाम।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।
धारा 5 को तू जान, सूचना अधिकारी पहचान, अब तो देनी ही पड़ेगी सूचना तमाम।
अब तो देनी ही पड़ेगी सूचना तमाम।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।
धारा 4 का है राज, जानो दफ्तर के कामकाज, अपने आप ही देनी होगी सूचना तमाम।
अपने आप ही देनी होगी सूचना तमाम।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम
धारा 19 का कमाल, अपील से आएगा फरमान।
जुर्माना भर के भी देनी होगी सूचना तमाम। जुर्माना भर के भी देनी होगी सूचना तमाम।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।।
अफसर जो तोड़े कानून, झेले जनता का जुनून।
जुर्माना भर के भी देनी होगी सूचना तमाम।
अब तो जनता ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।बच्चे बच्चे ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।
अब तो लोगों ने पकड़ी है सत्ता की लगाम।
*क्रांतिकारी आंदोलनों में गीत गाने संप्रेषण के सशक्त माध्यम – निखिल डे*
मजदूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक वरिष्ठ आरटीआई एवं सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने कहा कि आरटीआई कानून पर यह गाना एमकेएसएस के कार्यकर्ता पारस बंजारा एवं उनके साथियों के द्वारा बनाया गया था। लोगों को आरटीआई कानून के प्रति जागरूक करने में इस गाने का बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। अपने मित्र एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक शंकर सिंह की तरफ इशारा करते हुए निखिल डे ने कहा की शंकर सिंह भी बहुत अच्छा गाते हैं और काफी गाना स्वयं निर्मित किए हुए हैं लेकिन कोरस गीत की वजह से अभी मीटिंग में संभव नहीं हो पाएगा। वर्तमान किसान आंदोलन का जिक्र करते हुए निखिल डे ने बताया कि यहां भी संप्रेषण की नई नई तकनीकें इजाद की जा रही हैं और जब उन्होंने आरटीआई कानून के प्रति पारदर्शिता के लिए 40 दिन का आंदोलन किया था तब भी कई गीतों के माध्यम से संप्रेषण के तरीके इजाद किए थे।
*सोशल ऑडिट, जनसुनवाई, पारदर्शिता और आरटीआई की कहानी राजस्थान में एक साथ प्रारंभ हुई – निखिल डे*
मजदूर किसान शक्ति संगठन और एनसीपीआरआई के सह-संस्थापक एवं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता एवं आरटीआई एक्टिविस्ट निखिल डे ने बताया कि राजस्थान में सोशल ऑडिट, जनसुनवाई, पारदर्शिता के लिए एवं आरटीआई कानून की उनकी लड़ाई एक साथ प्रारंभ हुई। उन्होंने याद करते हुए बताया मेरा पैसा मेरा हिसाब स्लोगन के साथ मजदूर किसान शक्ति संगठन अधिकारियों से जानकारी मांगना प्रारंभ किया लेकिन इसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी और अधिकारी मस्टरोल और रजिस्टर नहीं दिखाते थे। क्योंकि वह डरते थे कि उनकी कारगुजारी सामने आ जाएगी। निखिल डे ने बताया कि जब जानकारियां बाहर आने लगी तो उनमें गाय बकरी मवेशियों के नाम भी मस्टररोल में लिखे गए थे और एक व्यक्ति के चार-चार बार नाम लिखे जाते थे जिससे हड़कंप मच गया। राजस्थान में जहां-जहां हमारे संगठन के द्वारा जनसुनवाई रखी गई उसमें दिसंबर 1994 में से पहला पाली जिले का कोट किराना गांव, दूसरा जवाजा, तीसरा विजयपुरा, चौथा भीलवाड़ा जिला और पांचवा राजसमंद के भीम ग्राम में। इस प्रकार 3 माह के अंतराल में वर्ष 1994 में 5 जन सुनवाइयां रखी गई जिसने राजस्थान की पूरी स्थिति को बदल दिया। निखिल डे ने बताया किताब यह सब जानकारी आसानी से नहीं मिलती थी क्योंकि आरटीआई कानून तब अस्तित्व में नहीं था और चोरी छुपे अथवा किसी अधिकारी के माध्यम से जानकारी प्राप्त की जाती थी। जब यह जानकारी सामने आई तो मृतक लोगों के नाम पर मस्टररोल जारी किया जाना देखा गया इसलिए वास्तविक हितग्राहियों को कार्य नहीं मिल रहा था जिसकी वजह से उन्हें बेरोजगार घूमना पड़ता था और यह सब जन सुनवाई के बाद ही उजागर हो पाया।
*ये चार बातें बनी निखिल डे की जनसुनवाई का अहम हिस्सा, सरकार ने भी घुटने टेके*
मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक एवं एनसीपीआरआई के सह-संयोजक वरिष्ठ आरटीआई कार्यकर्ता एवं सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने वाले निखिल डे ने बताया कि इसलिए जनसुनवाई में हमने 4 चीजें रखी जिसमें सूचना खुली रहनी चाहिए तब यह जन सुनवाई हो सकती है, दूसरा यह कि वह अधिकारी मौजूद होना चाहिए जिसके खिलाफ बात उठ रही है जिससे वह अधिकारी भी अपनी बात रख सके और तीसरा था कि जो भी पैसा खाया हुआ है वह पैसा वापस उस व्यक्ति को मिलना चाहिए अथवा उस कार्य के लिए दिया जाना चाहिए जिसका पैसा खाया गया है और चौथा था कि सामाजिक अंकेक्षण या सोशल ऑडिट किया जाना अनिवार्य हो। इसके बाद देखा गया की जिन सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध यह कार्यवाही होने लगी तो वह पैसा वापस करने लगे और बोलने लगे कि आप हमारे ऊपर एफ आई आर मत दर्ज करवाओ तब सरकार ने कहा की संगठन ने तो अपनी ही कोर्ट की व्यवस्था प्रारंभ कर दी। तब मजदूर किसान शक्ति संगठन के द्वारा कहा गया कि यह काम सरकार द्वारा किया जाना चाहिए और सामाजिक अंकेक्षण सरकारी प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाये।
*सोशल ऑडिट टीम एक स्वतंत्र एजेंसी होती है -निखिल डे*
इस बीच सोशल ऑडिट, जनसुनवाई, पब्लिक ऑडिट पर प्रकाश डालते हुए मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक एवं एनसीपीआरआई के संयोजक निखिल डे ने बताया कि सोशल ऑडिट के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी होती है और यह भी कहा कि कैग जनता के बीच में सीधे ऑडिट करने नहीं आती है जबकि कैग की जवाबदेही कागजी तौर पर सोशल ऑडिट कर ऑडिट रिपोर्ट सरकार को सौंपना होता है। जबकि सोशल ऑडिट में सीधे जनता भागीदार होती है और जनता किसी कार्य का ऑडिट करती है और जनता सरकार को बताती है कि कौन सा कार्य किस गुणवत्ता का और किस मापदंड का हुआ है और कितनी राशि उस कार्य में खर्च की जानी चाहिए। यदि सोशल ऑडिट के दौरान जनता के साथ कोई अभद्रता करता है अथवा असामाजिक तत्व नुकसान पहुंचाने का प्रयास करते हैं तो यह सरकार की जिम्मेदारी होती है कि उनकी सुरक्षा करें। निखिल डे ने बताया कि सरकार और कैग द्वारा करवाए जाने वाले सोशल ऑडिट में सोशल ऑडिट टीम पर शून्य दशमलव 5 प्रतिशत राशि खर्च की जाती है। अर्थात यदि एक लाख करोड़ रुपए का बजट नरेगा के लिए पास किया गया है तो उसमें लगभग 500 करोड रुपए का बजट सोशल ऑडिट करवाने के लिए खर्च किया जाता है।
*घर घर जाकर सूचना बांटना सोशल ऑडिट टीम का दायित्व – निखिल डे*
एमकेएसएस के सह-संस्थापक एवं वरिष्ठ आरटीआई कार्यकर्ता निखिल डे ने बताया कि सोशल ऑडिट कैग के द्वारा संचालित की जाती है और इसकी एक पूरी क़ानूनी प्रक्रिया होती है। न्यायालय ने इसे मान्य किया हुआ है और आज ज्यादातर सरकारी विभाग इसे अपना रहे हैं जिसकी वजह से अकाउंटेबिलिटी और रिस्पांसिबिलिटी प्रशासनिक कार्यों में दिखाई देने लगी है। सोशल ऑडिट टीम के द्वारा किसी भी कार्य का ऑडिट किए जाने के पहले उस क्षेत्र में घर-घर जाकर सूचना बांटी जाती है और सभी लोगों को उस सोशल ऑडिट के कार्य में इंवॉल्व किया जाता है जिससे ज्यादा से ज्यादा पब्लिक ओपिनियन प्राप्त हो सके और पारदर्शिता लाने में मदद मिल सके। सोशल ऑडिट का मतलब ही है कि सभी सूचना खुले में रखी जानी चाहिए। इसके बाद सरकार को कार्यवाही करनी चाहिए। सोशल ऑडिट और पब्लिक ऑडिट में अंतर यह है कि जहां सोशल ऑडिट सरकार के द्वारा मनोनीत टीम होती है वही पब्लिक ऑडिट कोई भी व्यक्ति समाज में समूह में एकत्रित होकर किसी भी कार्य की पब्लिक ऑडिट कर सकते हैं। पब्लिक ऑडिट और जनसुनवाई जनता का सशक्त हथियार है और इसका उपयोग पारदर्शिता लाने में महत्वपूर्ण साबित हो रहा है।
*सोशल ऑडिट और जनसुनवाई हकीकत और सच्चाई जानने के लिए बहुत बड़ा हथियार है- शंकर सिंह*
इस बीच मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक शंकर सिंह ने बताया सोशल ऑडिट और जनसुनवाई हकीकत और सच्चाई जानने का बहुत बड़ा हथियार है। सोशल ऑडिट और जनसुनवाई से बात सीधे जनता के बीच में आ जाती है। ऑडिट शब्द यूनान के ऑडियो सदस्य उत्पन्न हुआ है जिसका मतलब है सुनना और सुनाना अर्थात कागज तो सरकार बनाती है लेकिन उस कागज में क्या कार्यवाही की गई? ग्राउंड स्तर पर उसकी क्या वास्तविकता है? यह सब कागजों को पढ़कर जनता के बीच में जाकर उन्हें सुनाया जाना, उन्हें बताया जाना, यह सोशल ऑडिट कहलाता है।
अतः सोशल ऑडिट का सिद्धांत सीधा सा यह है कि जो भी कार्य कागजों में किए गए हैं उसका भौतिक सत्यापन किया जाए और जनता उसका सत्यापन करके बताएं कि क्या सच्चाई है और कितना कार्य हुआ है?
एमकेएसएस के सह-संस्थापक शंकर सिंह ने बताया कि अधिकारियों और अफसर मात्र कुछ दो-चार लोगों के बीच में बैठकर मामले का निपटारा कर लेते हैं लेकिन जब वही मामला जनता और समाज के बीच में जाता है तो हकीकत सामने आ जाती है और जनता उसका फैसला करती है कि क्या सही है और क्या गलत है। इसलिए सोशल ऑडिट एवं पब्लिक ऑडिट एवं जनसुनवाई का बहुत ही बड़ा महत्व होता है। यह सीधे-सीधे उस कार्य का भौतिक सत्यापन होता है जो अब तक कागजों के बीच में होना बताया जाता था। पहले सोशल ऑडिट, जनसुनवाई में सरकारी कर्मचारी अपनी सहभागिता नहीं निभाते थे और पैनल बनाकर पत्रकारों की उपस्थिति में सोशल ऑडिट और जनसुनवाई की जाती थी लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कई सारे विभागों में सोशल ऑडिट का कांसेप्ट पहुंचा दिया गया है जिसकी वजह से समाज में पारदर्शिता आ रही है।
शंकर सिंह ने बताया कि हमारी पहली जनसुनवाई मजदूरों के लेबर पेमेंट को लेकर हुई थी और एमकेएसएस ने कहा कि सबसे पहले सोशल ऑडिट हम करेंगे और हमें पहले पेपर चाहिए और हम जगह-जगह जाकर इस का भौतिक सत्यापन करेंगे। इस प्रकार अफसरों में डर व्याप्त हो गया कि उनके काले कारनामे और भ्रष्टाचार जनता के समक्ष आ जाएंगे और इस प्रकार सोशल ऑडिट की शुरुआत हुई।
इस बीच एम के एस एस के कार्यकर्ता एवं आरटीआई एक्टिविस्ट पारस बंजारा ने बताया कि सोशल ऑडिट या पब्लिक ऑडिट जनसुनवाई का ही एक स्वरूप है। सोशल ऑडिट कैग के द्वारा प्रारंभ किया गया था और इसे अब कानूनी मान्यता प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णय के बाद अब सोशल ऑडिट पंचायत विभाग, राजस्व विभाग, खाद्य सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, स्वच्छ भारत मिशन, नरेगा आदि में आधिकारिक तौर पर लागू कर दी गई है। अब वर्तमान में पूरे देश में सोशल ऑडिट की टीम बनाई जा रही है। सोशल ऑडिट के लिए एक स्वतंत्र निकाय होना चाहिए। सोशल ऑडिट के लिए हर छह माह में सामाजिक अंकेक्षण किया जाना चाहिए। आरटीआई कानून में सूचना आने के बाद हम उसका क्या उपयोग करेंगे? सूचना का सरलीकरण हम किस प्रकार से कर जनता के बीच में जाएंगे? सूचना के बाद लाभार्थियों को चिन्हित किया जाना, सूचना का सत्यापन किया जाना, जगह का सत्यापन किया जाना, गुणवत्ता का भौतिक सत्यापन किया जाना और यह सभी सत्यापन हम जनता से पूछ कर ही करते हैं और साथ में तकनीकी सत्यापन भी करते हैं। ग्राम सभा की जनसुनवाई में सोशल ऑडिट किया जाना और सोशल ऑडिट जन सुनवाई के बाद जो मुद्दे निकल कर आते हैं उस पर कार्यवाही किया जाना जिससे सरकार उस पर नियत समय पर कार्यवाही करें यह सब महत्वपूर्ण बिंदु होते हैं जो सोशल ऑडिट जनसुनवाई और आरटीआई के संयुक्त प्रयास से ही संभव होते हैं। इस प्रकार अंत में किसी भी कार्य से संबंधित समस्त सच्चाई सामने आ जाती है और समाज प्रशासन में पारदर्शिता लाने में मदद मिलती है। आज सरकार के द्वारा लगभग सभी कार्यों की सोशल ऑडिट की जा रही है और न्यायालय ने इस को लागू कर दिया है। आज आरटीआई कानून ने एक आम व्यक्ति को यह अधिकार दे दिया है कि वह सत्ता के किसी भी व्यक्ति से सवाल कर सके। यदि देखा जाए तो आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड में सोशल ऑडिट को लेकर बहुत ही अच्छा कार्य चल रहा है और सरकार स्वयं ही सोशल ऑडिट करवा रही है। जनसुनवाई का कार्यक्रम जनता के द्वारा किया जाता है।
*ग्रास रूट के कार्यों में सोशल ऑडिट वरिष्ठ कार्यालयों की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण – भास्कर प्रभु*
वहीं जूम मीटिंग के दौरान काफी पार्टिसिपेंट्स ने यह भी जानना चाहा कि क्या सोशल ऑडिट और जनसुनवाई वरिष्ठ कार्यालय जैसे मुख्यमंत्री कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, आईएएस अधिकारी, राष्ट्रपति कार्यालय अथवा किसी भी वरिष्ठ कार्यालय का किया जा सकता है? इस पर जवाब देते हुए भास्कर प्रभु ने बताया कि व्यक्ति को सबसे पहले अपने आसपास व्यवस्थाओं में सुधार के प्रति जागरूक होना चाहिए और आम जनता को उसका अधिकार प्राप्त हो सके इस पर सोशल ऑडिट और जनसुनवाई पब्लिक ऑडिट का प्रयोग किया जाना चाहिए। जबकि यदि वरिष्ठ कार्यालय आईएएस अधिकारी आदि का सोशल ऑडिट करवाए जाने पर ध्यान दिया जाएगा तो उसेसे विशेष लाभ प्राप्त नहीं होगा क्योंकि भारत में आज सबसे बड़ी समस्या आम गरीब व्यक्ति को खाद्यान्न न मिलना, योजनाओं का लाभ न मिल पाना, ग्रामीण क्षेत्रों में और मुहल्लों का समूह में विकास का न होना, भ्रष्टाचार, अनियमितता आदि प्रकार की व्यापक समस्याएं हैं जिस पर ध्यान दिया जाना ज्यादा उचित रहता है।
*कार्यक्रम के दौरान विशिष्ट अतिथि के तौर पर शैलेश गांधी एवं आत्मदीप ने भी रखे अपने विचार*
इस बीच कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के तौर पर सम्मिलित पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी एवं पूर्व मध्य प्रदेश राज्य सूचना आयुक्त आत्मदीप ने भी कार्यक्रम के विषय में अपने विचार रखे और बताया कि सोशल ऑडिट, पब्लिक ऑडिट और जनसुनवाई एक सशक्त माध्यम है जिसमें आरटीआई की धारा 4 के तहत स्वतः ही साझा की जाने वाली जानकारी एवं अन्य आरटीआई आवेदनों से प्राप्त जानकारी का उपयोग कर समाज में पारदर्शिता जवाबदेही लाने में मदद मिल रही है। जनता को जागरूक होने की आवश्यकता है और हर जगह शहर, गांव, मोहल्ले में अपने आस पास होने वाले सरकारी कामकाज की निगरानी कर उसका सोशल ऑडिट और जनसुनवाई किया जाना चाहिए। उक्त जानकारी शिवानंद द्विवेदी सामाजिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता जिला रीवा मध्य प्रदेश ने दी।