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कजली तीज स्त्री के सुहाग का ही नहीं हाडाओं के शौर्य पराक्रम का प्रतीक भी हैं

बून्दी.KrishnakantRathore/ @www.rubarunews.com- राजस्थान की पहचान यहां की ऐतिहासिक धरोहरों के साथ सांस्कृतिक विरासत भी हैं। यहां के तीज त्यौहार, पहनावा, खानपान और रहन सहन राजस्थान को एक अलग पहचान देता है। श्रावण माह में तीज – त्यौहार मेलों की बात करें तो तीज के मेले के बिना बात करना बेमानी होगा। जहां श्रावणी शुक्ल तृतीया को जयपुर मे हरियाली तीज का पर्व अति प्रसिद्ध हैं, वैसे ही हाडौती में कजली तीज विख्यात हैं, जिसे बड़ी तीज के नाम से भी जाना जाता है। जहां कजली तीज महिलाओं के सौलह श्रृंगार और पति-पत्नि के प्रेम का प्रतीक हैं, वहीं यह पर्व हाडा चौहानों के शौर्य और पराक्रम का भी प्रतीक है। भाद्रपद माह के शुक्ल पद्वा की तृतीया को आयोजित होने वाली कजली तीज, सातुडी तीज, बड़ी तीज और भादवा की तीज भी कहलाती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन विवाहित महिलाऐं अपने पति की लम्बी आयु के लिए और अविवाहित युवतियां अच्छें वर की कामना के लिए व्रत रखती हैं। इस दिन चन्द्रमा की पूजा करने के बाद उपवास तोड़ते हैं, गायों की पूजा करते हैं, झूले लगाऐ जाते है, महिलाऐं इकट्टा होकर नाचती हैं, गाती हैं। पूरे वर्ष भर मनाऐ जाने वाले तीज त्यौहारों मे से प्रमुख त्यौहार हैं कजली तीज। इस दिन पार्वती की पूजा करना शुभ माना जाता हैं, किवदंती हैं कि 108 जन्म लेने के बाद देवी पार्वती भगवान शिव से विवाह करने मे सफल हुई थी। यह दिन निस्वार्थ प्रम के सम्मान के रूप में भी देखा जाता हैं। यह पर्व अपने पति के लिए एक स्त्री की भक्ति और समर्पण को दर्शाता है।

हाडाओं के पराक्रम ने बनाया कजली तीज को विशेष …..

हाडौती मे इस पर्व के आयोजन का ऐतिहासिक महत्व भी रहा है। यह पर्व यूं तो पूरे देश में मनाया जाता हैं, लेकिन बून्दी सहित हाडौती में इसका आयोजन ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। कजली तीज का ऐतिहासिक महत्व बून्दी राज्य के गोठड़ा ठिकाने के ठाकुर बलवन्त सिंह हाड़ा से जुड़ा हुआ हैं। कहा जाता हैं कि एकबार अपने मित्र के यह कहने पर की, “जयपुर में तीज की भव्य सवारी निकलती हैं, ऐसी सवारी अपने यहां निकले तो शान की बात रहे।” हालांकि कहने वाले साथी ने यह बात सहज ही कही हो, लेकिन ठाकुर बलवन्त सिंह के मन मे यह बात लग गई। ठाकुर बलवन्त सिंह उसी क्षण तीज को जीत कर लाने की मन में ठान कर अपने 11 विश्वस्त साथियों के साथ जयपुर जा पहुँचे।

श्रावण शुक्ल तृतीया को निश्चित कार्यक्रमानुसार जयपुर के मुख्य बाजारो में राजसी ठाठबाट और शाही लवाजमें के साथ तीज माता की सवारी निकाली जा रही थी। ठीक इसी समय गोठड़ा के ठाकुर बलवन्त सिंह अपने विश्वस्त साथियों के साथ जयपुर के शाही लवाजमें के बीच मे से तीज माता की स्वर्ण जडित प्रतिमा को लूटकर वापिस गोठड़ा के लिए निकल लिये। ठाकुर बलवन्त सिंह हाड़ा ने गोठड़ा पहुँच कर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तृतीया को कजली तीज के तीज माता की भव्य सवारी का आयोजन सम्पन्न करवाया। यह घटना 1819 के आसपास की है।

बलवन्त सिंह थे साहसी जाबांज यो़द्धा ……

बलवन्त सिंह साहसी जाबांज योद्धा होने के साथ बात के धुनी भी थे। वरना उस समय जयपुर के शाही लवाजमे और पूरे लाव लश्कर के बीच सोन चांदी और रत्नजड़ित आभूषणों से लदी हुई तीज माता की प्रतिमा को लूट लाना हर किसी के वश मे नहीं था। कहा जाता हैं कि बून्दी के शासक भी इनके आगे रास्ता बदल लिया करते थें। कहते हैं कि एकबार जयपुर वालों की बकरी इनके क्षेत्र में चरने आ गई। तो जयपुर वालों के कहने पर इन्होंने बकरी की चमड़ी तक को देने से मना कर दिया। जिस पर कहावत हैं कि, “नरुकां की बाकरी लुकछुप खागि खेत, बलवंत सिंह क पाणं पड़गी खाग्यों खाल समेत।”
जयपुर से तीज की प्रतिमा लाने वाले बलवन्त सिंह आज भी गोठड़ा स्थित हवेली दरबार, और बून्दी बाणगंगा रोड़ पर स्थित बावड़ी पर बने स्थानक पर पूजित हैं, जहाँ सेकड़ों दर्शनार्थी दर्शन करने प्रत्येक रविवार को आते हैं। गोठड़ा वालों की एक हवेली कागदी देवरा क्षेत्र में स्थित हैं, यहाँ श्रृंगी परिवार द्वारा इनकी गद्दी की पूजा अर्चना की जाती है।

महाराव राजा राम सिंह लाए बून्दी में तीज को, 21 तोपों की सलाती से निकलने लगी तीज …….

बून्दी शासक विष्णु सिंह के चचेरे भाई ठाकुर बलवन्त सिंह जाबांज योद्धा के साथ उद्दण्ड़ी और हठीले स्वभाव के थें। ठाकुर बलवन्त सिंह इसी हठीले स्वभाव के चलते जयपुर की तीज लाने में सफल भी रहे। यह इसी स्वभाव के चलते इनकी अधिकांश गतिविधियाँ विद्रोहात्मक और अनुचित रही। 1824 ई. में कार्तिक पूर्णिमा मेले के दौरान केशवराय पाटन में कम्पनी और झाला की सेनाओं के साथ हुए संघर्ष में बलवन्त सिंह अपने साथियों के साथ खेत रहे। ठाकुर बलवन्त सिंह की मृत्यु के बाद महारावराजा राम सिंह तीज माता की प्रतिमा को बून्दी ले आए, जहाँ तीज माता की सवारी भव्य रूप में शाही लवाजमें के साथ 21 तोपों की सलामी से बून्दी के बाजारों मे निकलने लगी। बून्दी के राजपरिवार की शाही सवारी इस तीज माता को भव्यता दिव्यता प्रदान करने लगी। इस सवारी में बून्दी रियासत के जागरीदार, ठाकुर, धनाढ्य लोग और जन साधारण अपनी परम्परागत पौशाक पहनकर पूरी शानोशौकत के साथ इसमें भाग लेते थें। सैनिकों द्वारा शौर्य प्रदर्शन किया जाता था। सौलह श्रृंगार से सजीधजी लहरिया पहने हुए महिलाऐं तीज माता की सवारी में चार चांद लगाती थी।

रियासत काल में 21 तापों की सलामी के साथ नवल सागर झाल के सुन्दरघाट से निकलने वाली तीज माता की सवारी प्रमुख मार्गो से होते हुए रानी जी की बावड़ी पहुँचती, जहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते, करतब दिखाऐ जाते और कजलाकारों, विशिष्ट अतिविशिष्ट व्यक्तियों और अतिथियों के सम्मान के बाद तीज की सवारी पुनः महलों मे लाई जाती। दो दिवसीय इस तीज की सवारी के लोकानरंजन के आयोजन में मुख्यतः दो मदमस्त हाथियों का युद्ध विशेष आकर्षण का केन्द्र होता, जिसे देखने दूर दूर से लोग आते थें।

नगर परिषद के जिम्मे हैं तीज का आयोजन, लगता हैं 15 दिवसीय मेला.………….

स्वतन्त्रता के बाद भी तीज की सवारी की यह परम्परा अनवरत रही, जिसका दायित्व अब नगर परिषद उठा रहा है। राज परिवार तीज की प्रतिमा नहीं दिये जाने पर नगर परिषद द्वारा तीज माता की दूसरी प्रतिमा बनवा कर इस स्वस्थ परम्परा को जारी रखा। वर्तमान में तीज माता की सवारी में रियासतकालीन वैभव तो नजर नहीं आता लेकिन जन आस्था और लोगों का श्रद्धाभाव, सवारी शामिल झांकियां, बैंड बाजे, बग्घी, ऊँट घोडे, हाथी, अलगोजे बजाते ग्रामीण लोक कलाकारों की प्रस्तुतियाँ, स्वांगधरे कलाकार और अपनी अपनी सांस्कृतिक पौशाकोँं से लकदक ग्रामीण महिला और पुरुष इसे विशेष बनाती हैं। इस मौके पर आजाद पार्क में लगने वाला 15 दिवसीय मेला वर्तमान में कुंभा स्टैडियम में आयोजित होता है। वार्षिक लोकोत्सव के रूप में आयेजित इस मेले में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, कवि सम्मेलन, कव्वाली, अलगोजा गायन, स्टार नाईट, भजन संध्या, दंगल सहित स्कूली बच्चों के कार्यक्रम और प्रतियोगिताऐं होती है। तीज माता की सवारी का आयोजन बून्दी में ही नहीं अपितु नैंनवां में भी नगर पालिका द्वारा दो दिवसीय आयोजन किया जाता है। इसमें अखाड़ों के साथ झांकियाँ विशेष आकर्षण का केन्द्र होती है।

कृष्ण कान्त राठौर

सहायक आचार्य (शिक्षा), बून्दी (राजस्थान)