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क्या विज्ञान पर राजनैतिक हस्तक्षेप भारी पड़ रहा है?

नई दिल्ली.शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत, डॉ संदीप पाण्डेय(सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) @www.rubarunews.com>> भारत सरकार के भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद (आईसीएमआर) ने 2 जुलाई 2020 को कहा था कि 15 अगस्त 2020 (स्वतंत्रता दिवस) तक कोरोना वायरस रोग (कोविड-19) से बचाव के लिए वैक्सीन के शोध को आरंभ और समाप्त कर, उसका “जन स्वास्थ्य उपयोग” आरंभ किया जाए. क्योंकि यह फरमान भारत सरकार के सर्वोच्च चिकित्सा शोध संस्था से आया था, इसलिए यह अत्यंत गंभीर प्रश्न खड़े करता है कि क्या विज्ञान पर राजनैतिक हस्तक्षेप ने ग्रहण लगा दिया है? भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद ने अगले दिन ही स्पष्टीकरण दिया कि उसने यह पत्र इस आशय से लिखा था कि वैक्सीन शोध कार्य में कोई अनावश्यक विलम्ब न हो. परन्तु सबसे बड़े सवाल तो अभी भी जवाब ढूंढ रहे हैं. पिछले सप्ताह एक संसदीय समिति को विशेषज्ञों ने बताया कि वैक्सीन संभवत: 2021 में ही आ सकती है (15 अगस्त 2020 तक नहीं).

विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रमुख वैज्ञानिक डॉ सौम्या स्वामीनाथन, जो भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद की पूर्व निदेशक भी रही हैं, ने 15 अगस्त 2020 तक वैक्सीन बनाने के दावे का वैज्ञानिक रूप से समर्थन नहीं किया, और कहा कि शोध में तेज़ी लाना सही है परन्तु नैतिक और वैज्ञानिक रूप से ठोस शोध होना भी उतना ही ज़रूरी है.

अब तो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान  (एम्स दिल्ली) के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया ने भी पुष्टि की है कि 15 अगस्त 2020 तक वैक्सीन आना मुमकिन नहीं है.

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद से बेहतर कौन जानता है कि वैक्सीन शोध में कितना समय लग सकता है. सवाल यह है कि चिकित्सा शोध की सर्वोच्च सरकारी संस्था को किसने दबाव बनाकर यह दावा करने को कहा कि 15 अगस्त 2020 तक वैक्सीन आ जाएगी? ग़ौर तलब बात यह है कि जब कि जब यह घोषणा की गयी थी और तब  वैक्सीन का इंसान पर शोध आरंभ तक नहीं हुआ था.

पिछली  शताब्दी में चिकित्सा शोध का इतिहास मानवाधिकार उल्लंघन से कलंकित रहा है जिसके कारणवश चिकित्सा शोध करने के लिए आवश्यक प्रक्रिया बनायी गयी है ताकि  नैतिकता और मानवाधिकार से सम्बंधित कोई भी अवांछित बात न होने पाए. जो चिकित्सा शोध इंसानों पर किया जाता है उसमें सर्वप्रथम (प्रथम चरण) यह पुष्टि की जाती है कि यह मानव प्रयोग के लिए सुरक्षित है कि नहीं. दूसरे चरण में यह देखा जाता है कि मानव के लिए सुरक्षित होने के साथ-साथ,  शोधरत दवा या वैक्सीन आदि, रोग के इलाज या रोग से बचाव में कारगर है कि नहीं. और फिर आता है तीसरा चरण जो सबसे बड़ा होता है (अवधि और और जिन पर शोध किया जाता उनकी संख्या की दृष्टि से), जिसके बाद ही यह पता चलता है कि शोधरत दवा या वैक्सीन मानव जाति के लिए सुरक्षित है कि नहीं, रोग के प्रति प्रभावकारी है कि नहीं, और कितनी प्रभावकारी है, और यह कोई अन्य दुष्प्रभाव  तो नहीं उत्पन्न करती, आदि. इसके पश्चात् ही नयी दवा या वैक्सीन, यदि वह सुरक्षित और प्रभावकारी है, जन स्वास्थ्य उपयोग के लिए, नियमानुसार निर्मित कर उपयोग हेतु वितरित की जा सकती है.

सरकार के क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में इस शोध के आवेदन में भी पहले दो शोध-चरण के लिए 15 महीने का समय लिखा हुआ है. जिसका तात्पर्य है कि यदि वैक्सीन शोध जुलाई 2020 में आरंभ होगा तो सितम्बर 2021 तक ही पहले दो चरण पूरे हो पाएंगे और यह पता चल सकेगा कि वैक्सीन इंसान के लिए सुरक्षित और प्रभावकारी है कि नहीं. तीसरा सबसे लम्बा चरण अभी भी शेष रहेगा. परन्तु कुछ विशेष परिस्थितियों में ऐसा पहले हो चुका है कि यदि शोध से यह पता चले कि दवा / वैक्सीन रामबाण है तो तीसरे चरण शोध के साथ-साथ ही उसे आवश्यक सावधानी के साथ (क्योंकि शोध का तीसरा चरण पूरा नहीं हुआ है ) ज़रूरतमंद को दिया जाय. टीबी की नयी दवा बिडाकुइलीन के शोध में भी ऐसा ही हुआ था.

सरकार के क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में इस शोध के आवेदन में यह भी लिखा हुआ है कि यह शोध 12 केन्द्रों में होगा परन्तु 5 जुलाई 2020 तक सिर्फ 6 केन्द्रों से ही नैतिक समिति (एथिकल समिति) की संस्तुति प्राप्त थी.

एक और बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि कोरोनावायरस वैक्सीन के शोध के लिए आधारशिला जैसा मौलिक शोध तो सरकारी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलाजी में हुआ. परन्तु सरकार के क्लिनिकल ट्रायल्स रजिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में इस शोध के आवेदन के अनुसार, इस शोध को आगे बढ़ा रही है एक निजी बायोटेक कंपनी. जो शोधकर्ता भी है, इसमें निवेश भी कर रही है और शोध की प्रायोजक भी है. जब मूल शोध सरकारी संसथान में हुआ तो वैक्सीन शोध आगे ले जाने का कार्य भी सरकारी संस्था में क्यों नहीं हो रहा है? एपिडेमिक एक्ट के तहत, सभी निजी स्वास्थ्य स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र को, जिसमें निजी कंपनी बायोटेक आदि भी शामिल हैं, सरकार अपने आधीन क्यों नहीं कर रही है?

भारत सरकार को कोस्टा रिका सरकार की मुहिम का समर्थन करना चाहिए जिसकी मांग है कि कोरोना वायरस सम्बंधित सभी शोध (नयी दवा, वैक्सीन, जांच आदि) जनहित में सबके लिए उपलब्ध रहें और कोई पेटेंट आदि की कोई  बाधा न आए – जिससे कि शोध का लाभ जन मानस को मिल सके.

कोरोना वायरस महामारी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि स्वास्थ्य सुरक्षा सबके लिए अत्यंत आवश्यक है. यदि स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा से एक भी इंसान वंचित रह जायेगा तो हम सतत विकास लक्ष्य पर खरे नहीं उतर सकते. ज़मीनी हकीकत तो यह है कि 2015 में केवल 62% नवजात शिशुयों को ज़रूरी टीके/ वैक्सीन मिल रहे थे. हमारे देश में अनेक लोग उन रोगों से ग्रस्त हैं और मृत होते हैं जिनसे वैक्सीन के जरिये बचाव मुमकिन है, और इलाज भी. इस महामारी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि स्वास्थ्य सुरक्षा हमारे देश की अर्थव्यवस्था के लिए नितांत आवश्यक है. जितना ज़रूरी वैक्सीन शोध है उतना ही ज़रूरी यह भी है कि हम सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली को सशक्त करने में देरी न करें क्योंकि केवल सरकारी स्वास्थ्य सेवा ही स्वास्थ्य सुरक्षा की बुनियाद हो सकती है.

 

Umesh Saxena

I am the chief editor of rubarunews.com