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आत्मा का पवित्र होना ही उत्तम शौच धर्म – मुनिश्री प्रतीक सागर

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दतिया @rubarunews.com सोनागिर। मेरी आत्मा अनादि काल से शुद्ध है इस तरह हमेशा अपने अंदर ही ध्यान करता है वह शुचित्व है। आत्मा का स्वरूप ही शौच धर्म है। इसीलिए ज्ञानी महामुनि इसी का ध्यान करते हैं। बह्म शारीरादि की शुद्धि करना, स्नान करना गंगा यमुना आदि नदी, तालाब या समुद्र इत्यादि में स्नान करके जो लोग अपने को शुचि मानते हैं वे केवल बह्म शुचि ये शुद्ध हैं, परंतु वह शरीर की शुचि अधिक देर तक कहां टिक सकती है? अगर इसको सदा किसी नदी या तालाब में डुबोकर रखोगे तो भी यह सप्त-धातु मय।महान अपवित्र दुर्गन्ध मय शरीर कभी शुद्ध नहीं हो सकता। *यह उदगार पर्युषण पर्व पर मुनिश्री प्रतीक सागर जी महाराज ने सोनागिर स्थित भट्टारक कोठी में उत्तम शौच धर्म का महत्व को बताते हुए व्यक्त किए।

 

मुनिश्री ने बताया कि आजकल के बहुत से लोग शरीर को पवित्र करने के लिए कई घंटे तक आठ-आठ, दस-दस बाल्टी तक .पानी से।स्नान करने में लगे रहते हैं, साबुन से खूब रगड़ रगड़ कर स्नान करते हैं और खूब तेल फुलेल, चंदन के उबटन, सुगंधित गुलाब, चम्पा, चमेली, केवड़ा एवं और भी अन्य अनेक प्रकार के फूलों के हार इत्यादि से शरीर की सजावट करते हैं, परंतु पांच मिनट या दस मिनट में ही उन सुगंधित फूलों का हार, अच्छे-अच्छे कपड़े तथा सोने के जेवर इत्यादि को खराब कर देता है। और फूल माला इत्यादि तुरंत ही अपवित्र शरीर के स्पर्श से निर्गंध हो जाते हैं।
मुनिश्री ने कहा कि जिस प्रकार हजारों मन साबुन लगाकर कोयले को धुलवाया जाय तो भी वह कोयला कभी भी अपने काले पन को छोड़कर सफेद पन को प्राप्त नहीं कर सकता उसी तरह यह शरीर भी दुनियां भर के साबुन, तेल, फुलेल, अंतर, चंदनादि से कभी भी सुगंधित नहीं हो सकता अर्थात् पवित्र नहीं हो सकता। यह शरीर सदा अमंगल ही रहता है। इसीलिए ज्ञानी महान महात्मा मुनियों ने शरीर को शुचि न मानकर उस अमंगल मय शरीर में स्थित मंगलमय शुद्ध आत्म-तत्व।को ही शुचि माना है।

 

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Pratyaksha Saxena

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