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अरावली पर्वतमाला की गोदी में बसी प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण बून्दी घाटी, जहाँ जैता नामक मीणा के अधीन 300 घरों की एक बस्ती थी। जहाँ मीणा जाति के व्यक्ति पहाड़ी गुफाओं, कंदराओं में झोपड़ियाँ और पठारी भागों में झोपड़िया बना कर रहा करते थें। बंबावदा के शासक बंगदेव के बड़े पुत्र राव देवा ने जैता मीणा पर आधिपत्य कर आषाढ़ बदी नवमी, वि.स.1298 को बून्दी राज्य की स्थापना की।
वृतान्त हैं कि जैता मीणा अभिमान पुर्वक अपने पुत्रों का विवाह कामदार चैहान राजपूत जसराज गोलवाल की पुत्रियों के साथ करना चाहता था और यह प्रस्ताव उसने जसराज के सम्मुख भी रख दिया। प्रस्ताव पाकर जयराज चिन्तित हुआ, चूँकि वह यह न तो विवाह करना चाहता था और न हीं कामदार होने के नाते इंकार कर सकता था। कोई उपाय न सूझने पर जसराज ने बंबावदा पहुँच कर राव देवा से यह सारा वृतान्त कह सुनाया। पूरी बात सुन कर राव देवा क्रोधित हुआ और तत्कान आक्रमण की योजना बनाने लगे। इस पर कामदार जसराज के कहने पर कि मीणा अपने राज्य मे ही पराक्रमी हैं, खुले युद्व में आपका सामना नहीं कर सकते।
अन्त में राव देवा ने छलपूर्वक परास्त करने का निर्णय लिया, क्योंकि युद्ध में वे लोग पलायन कर जीवित रह सकते थें। योजनानुरूप कामदार जसराज ने जैता मीणा के समक्ष अपनी पुत्रियों का विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और बून्दी से 4 कोस दूर ग्राम उमरथूणा में विवाह सम्पन्न करवाने का निश्चय किया। विवाह उत्सव में भाग लेने के बहाने राव देवा का े भी आमंत्रित किया गया। राव देवा उसारा मीणाओं का समूल नाश करना चाहता था। अतः उमरथूणा के पहाड़ी दर्रे में बने जनवासे में जहाँ सभी मीणा बारात लेकर पहुँचे थें, वहीं घात लगा कर किये गये अविलम्ब संघर्ष में सभी को सदा के लिए सुला दिया। तदन्तर वि.सं. 1298 आषाढ़ बदी नवमी तदनुसार 24 जून 1241 ई. को राव देवा ने बून्दी पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
बून्दी पर आधिपत्य के बाद जसराज की दोनों पुत्रियों का विवाह टोडा नरेश गोविन्द राज सौंलंकी के पुत्रों कुंभराज और कन्हड़ के साथ करवाया और खटकड़, गेण्ड़ोली, पाटन, लाखेरी और करवर पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। राव देवा के विजय अभियानों से प्रसन्न होकर राव बंगदेव ने विजित प्रदेश राव देवा के स्वामित्व में सौप दिया। तब यहाँ कोई सुव्यवस्थित बसावट नहीं थी। हाड़ाओं ने नगर को बसाने के लिए बड़ा परिश्रम किया। बून्दी के नाले से सथूर के पहाड़ियों से निकलने वाली चन्द्रभागा नदी प्रवाहित थी। वर्तमान के मेंढ़क दरवाजे से मीरागेट तक यानि सदर बाजार, नागदी बाजार तक यह नाला दो हाथी डूब से भी गहरा और चौड़ाई लिये हुए था। परिक्षेत्र में सधन जंगल फैला हुआ था। आवासीय बस्ती प होकर पहाड़ी गुफाओं, कंदराओं में झोपड़ियाँ और पठारी भागों में झोपड़िया बना कर रहा करते थें। बून्दी के नाले से निकलने वाली चन्द्रभागा नदी के बहाव को पहाड़ो का मलबा डाल कर मोड़ा गया तो गहरे नालों को पहाड़ों के मलबे से भर कर कई वर्षो में इस बस्ती को नऐ आयाम दिए गए। राव देवा से 24 वें शासक महा राव बहादुर सिंह तक सभी हाड़ा शासकों ने बून्दी के व्यवस्थित बसावट को वर्तमान स्वरूप प्रदान किये।
हाड़ा शासकों ने जहाँ पहाड़ी नाले को मिट्टी मलबें से भरवा कर, जंगलों को कटवा कर, उबड़ खाबड़ पठारी मैदानों को समतल करवा कर बस्ती बसाने का प्रयास किया। बढ़ती बसावट के साथ नगर को चारों तरफ ऊँचा परकोटा बनवा कर सुरक्षित किया और चारों दिशाओं में विशाल दरवाजे भी बनवाये। उतंग पहाड़ी पर तारागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया और पानी की निर्बाध आपूर्ति हेतु चन्द्रभागा के पूर्ववत् मार्ग पर नवलसागर तो बाणगंगा के प्रवाह में जैतसागर का निर्माण भी करवाया और रानी जी की बावडी, भावल्दी बावडी, धाबाइयों का कुण्ड जैसे आकर्षक बावड़ियों सहित कुंड और कुएं भी बनवाये। कुण्ड और बावडियों की अधिकता के कारण इसे बावडियों का नगर भी कहा जाता हैं। नगर में कई नवीन महलों सहित हवेलियों, मंदिरों का निर्माण इन हाड़ा शासकों के द्वारा करवाया गया। हाड़ाओं से पहले बून्दी में मीणा सरदारों का आधिपत्य था। वर्तमान नगर परिषद में स्थित बूंदा मीणा के महलों से ज्ञात होता हैं कि अंतिम मीणा सरदार जैता मीणा के समय बूदी नाले को छोड़ कर वर्तमान के चौगान गेट के बाहर के मैदानी हिस्से में बस्ती बसी हुई थी। वर्तमान बालचन्दपाड़ा से बाहरली बून्दी का सम्पूर्ण निर्माण हाड़ा शासकों की देन हैं। राजपूताना के साथ भारत भर में अपनी धाक जमाने के वाले हाड़ा शासकों के कारण यह सम्पूर्ण परिक्षेत्र ‘हाड़ौती’ के नाम से जाना गया।
बून्दी न केवल हाड़ाओं के शौर्य के लिए जान गया अपितु कला, साहित्य संस्कृति पर भी यहां की अमिट छाप रही। महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण, पं.गंगासहाय, मेहता लज्जाराम जैसे साहित्यकार यहां हुए तो मतिराम ने भी यहां पर काव्य साधना की। राजस्थान का पहला समाचार पत्र ‘सर्वहित’ का प्रकाशन मेहता लज्जाराम द्वारा बून्दी से किया गया तो पं. गंगासहाय ने सर्वप्रथम न्याय प्रक्रिया को ‘प्रबंध सार’ के रूप में लिखित रूप भी दिया। 1879 में बाल विवाह और नाता प्रथा जैसी कुरीतियों पर कानून और 1870 में महिलाओं को पैतृक संपति मे अधिकार देने का कानून भी सर्वप्रथम यहीं बना। हाड़ाओं के आश्रय में ही चित्रकला में बून्दी शैली विकसित भी हुई, गढ पैलेस स्थित रंगशाला में निर्मित बून्दी शैली के भित्तिचित्र पर्यटकों और कला प्रेमियों को आकर्षित करते हैं। मेवाड मे जौहर करने वाली कर्मावती और शीश काट कर देने वाली हाडीरानी जैसी हाडा वंश की ललनाओं के शौर्य सौन्दर्य से पूरित इस नगरी को यहाँ की धार्मिक और सांस्कृतिक विशेषताओं ने इसे ‘छोटी काशी’ का उपनाम भी दिया।
कृष्ण कान्त राठौर
सहायक आचार्य (शिक्षा), बून्दी
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