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महिला सशक्तिकरण से ज्यादा ज़रूरी है पुरुष संवेदनशील बनें

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नईदिल्ली. बॉबी रमाकांत(सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)/ @www.rubarunews.com>>अमरीका के सर्वोच्च नयायालय की न्यायाधीश रुथ बेदर जिन्स्बर्ग (जिनका पिछले माह देहांत हो गया था) ने अनेक साल पहले बड़ी महत्वपूर्ण बात कही थी: “मैं महिलाओं के लिए कोई एहसान नहीं मांग रही. मैं पुरुषों से सिर्फ इतना कह रही हूँ कि वह अपने पैर हमारी गर्दन से हटायें” (“I ask no favour for my sex. All I ask of our brethren is that they take their feet off our necks”). लखनऊ के डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में, मिशन-शक्ति और स्तन कैंसर जागरूकता माह के आयोजन सत्र में यह साझा कर रही थीं शोभा शुक्ला, जो लोरेटो कान्वेंट कॉलेज की पूर्व वरिष्ठ शिक्षिका, महिला अधिकार कार्यकर्ता एवं सीएनएस की संस्थापिका हैं. डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान की डॉ अनामिका ने तनवीर गाज़ी की पंक्तिया “तू चल तेरे वजूद की समय को भी तलाश है” साझा करते हुए, विशेषकर महिलाओं को प्रोत्साहित किया.

डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान की वरिष्ठ विशेषज्ञ ने भी इस कार्यक्रम में स्तन कैंसर सम्बन्धी महत्वपूर्ण सन्देश दिया. संस्थान की निदेशक प्रोफेसर (डॉ) नुज़हत हुसैन, कैंसर विशेषज्ञ प्रोफेसर (डॉ) रोहिणी खुराना, स्तन कैंसर विशेषज्ञ डॉ रोमा प्रधान इनमें प्रमुख रहीं.

यह चिंताजनक तथ्य है कि भारत में स्तन कैंसर होने की औसत उम्र में गिरावट आ रही है. भारत में 50-70% स्तन कैंसर की जांच अत्यधिक विलम्ब से होती है जब रोग बहुत बढ़ चुका होता है और कैंसर के फैलने की सम्भावना भी बढ़ जाती है. यदि स्तन कैंसर से हो रहीं असामयिक मृत्यु को कम करना है तो यह अत्यंत ज़रूरी है कि स्तन कैंसर की जांच प्रारंभिक स्थिति में जल्दी और सही हो, और सही इलाज मिले. स्तन कैंसर जागरूकता, स्तन का स्वयं परीक्षण, और यदि कोई बदलाव दिखे तो चिकित्सकीय जांच करवाना आवश्यक जन स्वास्थ्य हितैषी कदम हैं जो कैंसर नियंत्रण में कारगर होंगे. स्तन कैंसर होने का खतरा बढ़ाने वाले अधिकाँश कारण वो हैं जिनको बदला जा सकता है जैसे कि, मुटापा, अस्वस्थ्य आहार, शारीरिक व्यायाम में कमी, तम्बाकू, शराब का सेवन, आदि. स्तन कैंसर अधिकाँश महिलाओं में होता है पर पुरुषों और ट्रांसजेंडर लोगों में भी होता है हालाँकि महिलाओं की तुलना में दर बहुत कम है. महिलाओं को स्तन कैंसर का न केवल ज्यादा खतरा है बल्कि वह अधिक जानलेवा हो सकता है.

महिला अधिकार के बिना कैसे हो महिला स्वास्थ्य सुरक्षा?

नारीवादी शोभा शुक्ला ने डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के कार्यक्रम में अपने ऑनलाइन संबोधन में कहा कि महिलाएं स्तन कैंसर के प्रति जागरूक तो तब होगी जब वह अपने प्रति और अपने मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो सकेंगी, और अपने स्वास्थ्य अधिकार का इस्तेमाल कर सकेगी. जब हम महिला जागरूकता, सुरक्षा और सहभागिता की बात कर करते हैं तो यह मुल्यांकन करना ज़रूरी है कि क्या सही मायने में पुरुष और महिला सहभागी हैं? ऐसा क्यों है कि अक्सर महिलाओं से स्वास्थ्य लाभ उठाने में देरी हो जाती है?

शोभा शुक्ला ने जोर देते हुआ कहा कि लैंगिक असमानता कोई सृष्टि द्वारा नहीं रचित है बल्कि दकियानूसी पित्रात्मक सामाजिक ढाँचे से जनित है. सृष्टि ने पुरुष और महिला को शारीरिक रूप से थोड़ा भिन्न तो बनाया है परन्तु क्या कोई ऐसा जीन या डीएनए है जो कन्या या महिला को घर के काम में सीमित रखे या पुरुष को घर के काम न करने दे? यह जिम्मेदारी तो समाज में जो पित्रात्मक व्यवस्था गहरे तक व्याप्त है उसके कारण है कि लड़की के जन्म से पहले ही कुछ जगह उसको मारने की तैयारी होने लगती है या फिर उसे जीवन भर शोषण और भेदभाव झेलना पड़ता है.

यह अनेक घरों का सच है कि लड़की हो या महिला अक्सर घर-घर में वही सबकी देखभाल करती है. शोभा शुक्ला ने सवाल उठाया कि ऐसी कौन सा जीन है जो पुरुष को देखभाल करने नहीं देती? ऐसा अनेक घरों में होता है कि महिलाएं स्वयं बीमार होने के बाद भी घर का काम आदि करती हैं, और अपने स्वास्थ्य को तब तक अक्सर महिला नज़रअंदाज़ करती हैं (और अक्सर उनके घर के पुरुष भी ध्यान नहीं देते) जब तक महिला बिस्तर ही न पकड़ ले और घर के प्रबंधन में परेशानी न आने लगे. पर तब तक बीमारी से छुटकारा पाने में अक्सर बहुत देर हो चुकी होती है। ज़रा सोचें कि क्या कोई ऐसी जीन या डीएनए है जो पुरुषों को बच्चे के लालनपालन में बराबरी से सहभागिता न करने दे? कि लड़की कम खाए और लड़का ज्यादा पौष्टिक भोजन खाए? या पुरुष पहले खाएं और महिलाएं बाद में? यह अनुवांशिक या ‘जेनेटिक’ नहीं हैं बल्कि लैंगिक असमानता का मामला है – यह विकृत पित्रात्मकता की देन है जो घर-घर में अलग अलग तरह से – बड़े महीन तरीके से – हमारे जीवन में व्याप्त है.

आज़ादी अकेले नहीं आती – आज़ादी के साथ आती है जिम्मेदारी

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शोभा शुक्ला ने साझा किया कि पुरुष भी आज़ादी के साथ जीना चाहते हैं और महिलाएं भी, परन्तु आज़ादी अकेले नहीं आती – आजादी के साथ आती है जिम्मेदारी. जहाँ महिलाओं को पित्रात्मक व्यवस्था से आजाद होना है वहीं पुरुषों को भी दकियानूसी ज़हरीली पित्रात्मकता से आज़ाद होना है – अक्सर पुरुषों को स्वाभिक रूप से पित्रात्मक व्यवस्था और लैंगिक असमानता नहीं दिखती. यह कहना-मात्र ही काफी नहीं है कि हम लैंगिक भेदभाव नहीं करते. यदि पुरुष अपनी करीबी महिला से पूछ लें तो शायद आभास हो कि जाने-अनजाने में लैंगिक असमानता को वह कैसे बढ़ावा दे रहे हैं – जो लैंगिक असमानता हो गयी हो उसको सुधारें. शोभा शुक्ला ने पूछा कि “कोई ऐसा पुरुष है जिसने जन्म से ले कर आज तक, लैंगिक असमानता वाली व्यवस्था का लाभ न उठाया हो? क्या कोई ऐसी महिला है जिसने इस असमानता को जन्म-से-ले कर आज तक न झेला हो? यह सोचने के लिए आपसे कह रही हूँ कि हम सब स्वयं मूल्यांकन एवं सुधार करें. शायद अधिकांश पुरुषों को इस बात का एहसास भी नहीं है की पुरुष पैदा होने मात्र से कितने विशेष अधिकार और सुविधाओं का वह फ़ायदा उठाते हैं और महिलायें केवल महिला होने के नाते (किसी ‘जेनेटिक डीफ़ेक्ट’ या अनुवांशिक कमी की वजह से नहीं) उनसे वंचित रह जाती हैं”।

पुरुष संवेदनशील बनें

शोभा शुक्ला का मानना है कि महिला को सशक्तिकरण नहीं चाहिए क्योंकि महिला तो सशक्त होती ही है. हर महिला आपको संघर्षरत मिलेगी – स्तन कैंसर हुआ हो या नहीं हर महिला ‘सरवाइवर’ है क्योंकि वह इसी पित्रात्मक व्यवस्था में संघर्षरत है और जीवित है. महिला की जीवटता स्वत: ही प्रेरक है और अनेक जन आंदोलनों का भी चट्टानी आधार रही है. महिला के सशक्तिकरण से ज़्यादा ज़रूरी तो यह है कि पुरुष संवेदनशील हों – पित्रात्मकता की जकड़ से आज़ादी पायें – बराबरी और साझेदारी वाला जीवन जीने में बहादुरी दिखाएँ – अपना पौरुष दिखाएँ। महिलाओं को सुरक्षा नहीं सहभागिता और बराबरी चाहिए – सबके लिए सुरक्षित व्यवस्था स्वत: ही बन जाएगी। पित्रात्मकता को समाप्त करना है तो वह मात्रात्मकता से नहीं होगा – बल्कि लैंगिक असमानता को समाप्त करने वाली सहभागिता और साझेदारी वाली, बिना गैर-बराबरी वाली व्यवस्था से ही संभव होगा. गैर-बराबरी वाली व्यवस्था जब घर-घर में समाप्त होगी तभी तो बालिकाएं-महिलाएं पौष्टिक आहार खा सकेंगी, उचित व्यायाम कर सकेंगी, अपने स्वास्थ्य का भरपूर ध्यान रख सकेगीं – अपने ऊपर होने वाली हर प्रकार की हिंसा के खिलाफ खड़ी हो सकेंगी – जब महिलाएं और पुरुष गैर-बराबरी वाली जेल से आज़ाद होंगे तो ही महिलाएं अपने स्वास्थ्य के प्रति जिम्मेदारी के साथ सचेत रह सकेंगी – स्वयं स्तन कैंसर की जांच को अपने जीवन का हिस्सा बनायेंगी.

“मेरा मानना है कि हर महिला आर्थिक और सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर रहे. यदि महिला आर्थिक रूप से सम्पन्न होकर लैंगिक बराबरी वाली व्यवस्था में रहेगी तो वह यदि कैंसर हो भी गया है तो जल्दी जांच हो सकेगी और इलाज के दौरान तथा बाद में वह एक सम्मान पूर्ण जीवन जी सकेगी. स्तन कैंसर तथा स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाने के लिए सामाजिक और लैंगिक न्याय वाली सामाजिक व्यवस्था का होना ज़रूरी है। इसीलिए बराबरी, साझेदारी और संवेदनशीलता वाली व्यवस्था होगी तो पुरुष और महिला अधिक जिम्मेदारी एवं समझदारी के साथ कैंसर जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए एक दूसरे के बल बन सकेंगे – ऐसी मेरी कामना भी है और विश्वास भी” कहा शोभा शुक्ला ने जो डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में वक्ता थीं.

 

 

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