संपादकीय

आइए! मिलकर विचारें

*आइए! मिलकर विचारें*
वस्तुतः 31 दिसम्बर और 01 जनवरी में कोई ऐसा अंतर नहीं जो किसी महोत्सव का विषय बने। दोनों घर की दीवार पर टंगे कैलेंडर के अलग-अलग पन्नों पर अंकित दो तारीखें ही हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना सा है कि जीवन के तमाम निबंधों में से एक का उपसंहार लिखा जा रहा है तो दूसरे की प्रस्तावना। कल ऐसा कुछ नहीं हुआ जो आज नहीं होगा। आज कुछ ऐसा नहीं हो सकता जिसकी पुनरावृत्ति कल न हो। वस्तुतः महत्व जीवन के हर दिन का है। हर वो दिन जो एक रात के बाद आता है। जश्न हर दिन का क्यों न हो? यह सोचकर, कि मौत ने हमे एक दिन की मोहलत दी। कुछ बेहतर और सार्थक करने के लिए। उतार-चढ़ाव हर दिन की यात्रा के मोड़ पर हैं जो सदैव रहेंगे। ऊंचाई पर ले जाने वाले रास्ते कभी सीधे होते भी नहीं। आड़ी-तिरछी रेखाएं जीवन की परिचायक हैं और सीधी मौत की प्रतीक। दिन अच्छा हो या बुरा जीवन की अमानत है। जो अच्छा होगा उल्लास देगा। बुरा होगा तो सीख देगा आगत को अच्छा बनाने के लिए। अभिप्रायः इतना सा कि जो उत्साह आज एक दिन की विदाई और दूसरे की अगवानी को लेकर दिखा रहे हैं। यही उत्साह हर नए दिन के स्वागत में दिखाएं। क्योंकि वो भी 01 जनवरी की तरह आपके जीवन का एक अमूल्य दिवस है। इति शुभम!!